Bhakt Aur Bhagwan - II

पिछला भाग...

श्री कृष्ण मन-ही-मन मुस्कुराये और नारद से बोले - नारद तुम मेरी व्यथा लेकर रूकमणि के पास जाओ, संभवत: इस दुविधा के समय में रूकमणि इसके लिए तैयार हो जाएं। नारद ने कृष्ण से आज्ञा ली और देवी रूकमणि के पास चले गए। उन्होंने रूकमणि को सारा वृत्तांत सुनाया और कहा की प्रभु ने विशेष निवेदन किया है की आप अपना चरणामृत उन्हें पिलायें। नारद की बात सुनकर रूकमणि बोलीं, 'नहीं, नहीं..! देवर्षि, मैं अपने स्वामी के मुख में अपने चरणों का पानी डालूं... यह संभव नहीं है, यह पाप मैं नहीं कर सकती। तुम अभी स्वामी के पास जाओ और कहो कि मैं उनके इस निवेदन को स्वीकार नहीं कर सकती।'

नारद जी निराश मुद्रा में वहां से लौटे और देवी रूकमणि की बात श्री कृष्ण के समक्ष रख दी।
नारद की बात सुनकर श्री कृष्ण ने दुखी होने का अभिनय किया और कहा - नारद यदि ऐसा ही रहा तो यह सर दर्द हमें सदैव बेचैन ही रखेगा और हम पीड़ा मुक्त नहीं हो पाएंगे। नारद ने दुखी मन से कहा - प्रभु अब कर भी क्या सकते हैं। आपके पास कोई और उपाय हो तो बताएं, यह सेवक सदैव आपकी सेवा में तत्पर है। श्री कृष्ण बोले - हे नारद! आप भी तो मेरे अनन्य भक्त है, क्यों न आप ही मुझे अपना चरणामृत पिला दें। नारद जी झट से बोले - नहीं - नहीं प्रभु! आप मुझसे यह पाप न करवाएं, कोई और उपाय बताएं, मैं तैयार हूँ।

श्री कृष्ण बोले - अब तो एक ही उपाय शेष है। नारद ने पूछा - वह क्या प्रभु? श्री कृष्ण बोले - हे नारद! राधा के पास जाएँ, हमें प्रतीत होता है की राधा अवश्य अपना चरणामृत हमें पिलाएँगी।

नारद तुरंत राधा के पास पहुंचे और श्री कृष्ण की स्थिति से उन्हें अवगत करवाया। राधा ने जैसे ही सुना उन्होंने तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए और नारद से कहा, ' हे देवर्षि! आप तत्काल इस पात्र को श्री कृष्ण के पास ले जाइए और उनके मुख में इसके जल को डाल दीजिये।' नारद जी राधा की तत्परता देख कर विस्मित हुए बोले - हे देवी! क्या आप जानती है कि प्रभु के मुख में चरणामृत डालने से आपको क्या दण्ड मिल सकता है? राधा बोली - 'अवश्य, मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे 'रौरव' नामक नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा। परन्तु अपने प्रियतम के दुःख को दूर करने के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।'

देवर्षि नारद राधा की बात सुनकर आश्चर्यचकित हुए और मन-ही-मन ग्लानी से भर गए और सोचा की जिस प्रभु के नाम को मैं प्रतिक्षण जपता रहता हूँ आज मैं उनके कष्ट को दूर करने के लिए नर्क में जाने से भयभीत हो गया। नारद जी ने राधा को नतमस्तक होकर प्रणाम किया और कहा - आप धन्य है देवी... आप धन्य है। 

अब नारद जी समझ गये थे कि क्यों तीनों लोकों में राधा के प्रेम का स्तुतिगान हो रहा हैं? उन्होंने अपनी वीणा उठाई और राधे - राधे जपते हुए पुनः वैकुण्ठ चल पड़े। उधर भगवान श्री कृष्ण भी नारद को देखकर मंद-मंद मुस्कुराते हुए उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

कहानी समाप्त...
कहानी के सन्दर्भ में अपने विचार आप हमें विचार बॉक्स में लिख कर व्यक्त कर सकते हैं या ई-मेल कर सकते है। हमारा ई-मेल पता है baalpaper@outlook.in