भक्त और भगवान - 1

भक्त और भगवान (भाग-1)

ये उस समय की बात है जब तीनों लोकों में राधा की स्तुति ज़ोरों शोरों से होती थी और इससे देवर्षि नारद खीझ गए थे और थोड़े से चिडचिडे भी हो गए थे। देवर्षि नारद की खीज और चिडचिडेपन को देवराज इंद्र ने तक़रीबन भांप लिया था, सो उन्होंने एकदिन नारद जी से इसका कारण पूछ ही लिया।

देवर्षि नारद ने उत्तर देते हुए कहा: हे इंद्र! मैं तो भगवन श्री कृष्ण से अथाह प्रेम करता हूँ और वर्तमान में जिधर देखो सभी राधे-राधे जपते फिरते हैं। मेरी चिंता है कि कोई भगवन श्री कृष्ण का नाम क्यों नहीं ले रहा है।
इंद्र ने उनके उत्तर को सुनकर उन्हें केवल यही कहा कि आप यह बात स्वयं श्री कृष्ण से क्यों नहीं पूछते?
नारद को इंद्र का सुझाव अत्यंत प्रिय लगा और उन्होंने ने नारायण - नारायण कहते हुए देवराज से विदा ली और वैकुण्ठ धाम की ओर उड़ चले।

जैसे ही नारद जी वैकुण्ठ पहुंचे उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण भयंकर सिर दर्द की पीड़ा से कराह रहे हैं। देवर्षि नारद अपने प्रभु यह दशा देखकर दुखी हुए। उन्होंने नारायण को प्रणाम किया और पूछा, "हे प्रभु! आप तो समस्त जगत के पालक है, सम्पूर्ण चराचर के कष्टों को हरने वाले हैं फिर भी आपके सिर में दर्द हो रहा है। क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार नहीं है? यदि मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं तत्क्षण अपना रक्त दान कर सकता हूं।"

श्री कृष्ण ने उत्तर दिया, "नारद जी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। इस दर्द का केवल एक ही उपाय है। नारद जी ने जिज्ञासावश पूछा - क्या प्रभु..! श्री कृष्ण बोले - यदि मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत मुझे पिला दे, तो निश्चित ही मेरा दर्द शांत हो सकता है।"

श्री कृष्ण की बात सुनकर नारद जी ने मन ही मन सोचा, "भक्त का चरणामृत और वह भी भगवान के श्रीमुख में...। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार होगा?" नारद जी ने कहा - प्रभु! यह कैसे संभव हो सकता है भला कौन ऐसा भक्त होगा जो अपने पैरों से छुआ हुआ पानी आपके श्रीमुख में प्रवाहित करेगा? ऐसा तो अधम प्राणी ही कर सकता है।


अब कैसे होगा भगवान के सर का दर्द ठीक, आखिर कौन होगा जो अपना चरणामृत भगवान को पिलाएगा? जानने के लिए पढ़े भाग - II

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