कहानी लिंडापीर की

लिंडापीर

एक समय की बात है हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा रियासत में राजा जगदीश चंद नामक राजा का राज था। कहने को तो वह राजा था पर बड़ा ही डरपोक और आलसी था। वह हर वक्त नशे में चूर रहता था। उसके राज में भुत-प्रेतों का डेरा था। लोग हमेशा सहमे-सहमे से रहते थे, सुबह-शाम बस भुत-प्रेतों की ही बातें होती थी।

कांगड़ा रियासत के एक नगर में एक राक्षस ने लोगों का जीना हराम कर दिया था। रात को राक्षस नगर में खुला घूमता और जो भी जीव उसके हाथ लगता था उसको अपना भोजन बना लेता था। जानवर तो जानवर, वह तो इंसानों को भी अपना भोजन बना लेता था। लोग बस चीखते-चिल्लाते रह जाते थे।

एक बार लोगों ने सोचा कि यह बात जाकर राजा को बताई जाये पर सभी जानते थे कि राजा डरपोक है। और इस बात से उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगेगी। इसलिए लोग अपना मन मारकर रह गए और समय चक्र को सामान्य रूप में चलने दिया।

राक्षस आधी पूंछ वाला थाइसलिए लोग उसे लिंडा पीर पुकारते थे। जब चांदनी रातों में राक्षस नगर में घूमता तो एकदम साफ़ दिखाई देता था। गनीमत थी की एक श्राप के कारण वह लोगों के घरों के अन्दर नहीं जा सकता था। जो लोग जानते थे वे तो रातभर घर में दुबके रहते थे और अपने घरों के सभी खिड़कियाँ और दरवाजे बंद रखते थे। लेकिन इतने बड़े नगर में कई तरह के ऐसे कार्यकलाप थे जो रात्रि में ही संभव थे इसलिए जो लोग अनजान थे या कार्य की विवशता के कारण बाहर रह जाते, राक्षस उन्ही को अपना शिकार बनाता। घरों से बाहर रहने वाले लोग समूह में रहते थे और रात को पूरी तरह से चौकस रहते थे। फिर भी सभी लोग डरे और सहमे हुए से रहते थे।

आखिर एक दिन लोगों ने सभा बुलवाई। सभा में सबने सोच-विचार किया किन्तु कोई ठोस हल नहीं निकल रहा था। अंत में एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा - यदि किसी को कोई ऐतराज़ न हो तो मैं एक सुझाव देना चाहता हूँ। सबने कहा - हाँ.. हाँ... बताइए।
बूढ़े व्यक्ति ने कहा - यदि हम राक्षस से मिलें और उसे कहें कि वह नगर में आना बंद कर दे। जिसके बदले में हम में से रोजाना एक आदमी उसके भोजन के लिए नगर के बाहर भेज दिया, जिससे कम-से-कम नगर के बाकी लोग चैन से सुबह शाम जब चाहें अपना काम निर्वाध रूप से कर सकेंतो कैसा रहेगा?
थोड़ी देर के लिए सभा में चुप्पी छाई रही फिर एक व्यक्ति ने कहा - विचार तो सही है परन्तु किस दिन कौन राक्षस का भोजन बनने जायेगा, इसका निर्णय कौन करेगा?
बूढ़े व्यक्ति ने फिर कहा - इसका एक उपाय यह हो सकता है कि प्रत्येक संध्या को सभी लोग एक जगह एकत्र होकर सबका नाम अलग-अलग पर्चियों में लिखकर एक बक्से में डाल दें। फिर सर्वसम्मति से एक व्यक्ति बक्से में से एक पर्ची निकलेगा। पर्ची पर जिस किसी का नाम होगा उसे अगले दिन राक्षस के भोजन के लिए जाना पड़ेगा।

सभी लोगों को यह उपाय पसंद आया। और उसी शाम वे सब नगर के मुख्य द्वार पर पहुंचे। रात काली थी और चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मुख्य द्वार के पास वाली ढलान के नीचे बहती हुई नदी से मेंढकों के टरटराने की आवाजें साफ सुनी जा सकती थी। राक्षस इसी रास्ते से आता था। अचानक बाणगंगा की और से उन्हें गड़गड़ाहट सुनाई दी। लोग डर गए। हू हा हू हा की डरावनी आवाजें आने लगी। सब लोगों ने देखा यह तो वही लिंडा पीर था, जिसने आतंक मचाया था। राक्षस भारी भीड़ को भोजन के रूप में देखकर ख़ुशी से नाचने लगा। उसका नाचना देख लोग डर गए। राक्षस कोई हरकत करता इससे पहले ही लोगों ने उससे विनती की - महाराज! आप हमारी पुकार सुनिए। आप रोज़-रोज़ ढेर सारे आदमी मरकर खाते हैं यह बात ठीक नहीं है। अगर आप ऐसे ही करेंगे तो हम में से कोई आदमी नहीं बचेगा। हम यह हरगिज़ नहीं चाहते कि आपको भोजन न मिले। हम सब ने एक फैसला किया है। राक्षस ने बड़ी-बड़ी आँखें और दाँत निकालते हुए पूछा - क्या फैसला किया है? महाराज हम रोज़ आपके भोजन के लिए एक आदमी नगर के द्वार पर भेज दिया करेंगे - लोगों ने सर झुककर लिंडा पीर से कहा।

लिंडा पीर ठा - ठा कर हँसते हुए बोला - ठीक है ठीक है। मुझे आपका यह फैसला पसंद आया। लेकिन एक बात सुन लो छल कपट मत करना। नहीं तो सबको जलाकर राख कर दूंगा। लोगों ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज ऐसा हरगिज़ नहीं होगा। आप हम पर विश्वास रखें। राक्षस ने कहा - कल से मुझे मेरा भोजन समय पर मिल जाये। लोगों ने हामी भरी। अब एक आदमी रोज़ राक्षस के भोजन के लिए भेजना शुरू कर दिया। राक्षस मुख्य द्वार पर बाणगंगा के रास्ते से आता और अपना भोजन पाता गुफा में लौट जाता। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा।

आज नगर की बुढिया तारा के ईकलौते बेटे की बारी थी। बेटे के सिवाय उसका कोई दूसरा सहारा नहीं था। उसने चूल्हे में आग नहीं जलाई। खाना नहीं पकाया। वह हनुमान जी की मूर्ति के सामने बेटे की रक्षा की भीख मांग रही थी। जोर-जोर से रो और बिलख रही थी। में वहां एक दीन दयाल नाम का एक साधू आ पहुंचा। बुढिया को देखकर उसने पूछा - माँ तू रो क्यों रही है। महाराज आधी पूंछ वाला राक्षस आज मेरे बेटे को खा जायेगा। मेरा वही सहारा है। मैं किसके सहारे जियूँगी। अपने भाग पर रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? साधू ने उसे हौसला देते हुए कहा - तू घबरा मत। रो भी मत। ऐसा कुछ नहीं होगा। उस राक्षस का वध मेरे हाथ लिखा है। आज रात तेरा बेटा राक्षस के पास नहीं जायेगा। राक्षस के पास मैं जाऊंगा।

बुढिया को अपने पुत्र के बचने की आशा बंधी। साधू ने कहा, 'मेरी एक शर्त है।'

बुढ़िया ने पूछा, 'ऐसी क्या शर्त है?' साधू बोल, 'कड़ाके की ठण्ड है। नगर के द्वार पर लकड़ियों का ढेर होना चाहिए। मैं लकड़ियों को जलाकर तब तक तापता रहूँगा जब तक वह राक्षस आ नहीं जाये।'

बुढ़िया ने कहा, 'मैं अभी लकड़ियाँ भिजवा देती हूँ महाराज!' साधू ने बुढ़िया के पास पेट भरकर खाना खाया।

रात होते ही नगर के द्वार पर पहुंचा। उसने लकड़ियों का ढेर लगाया और उसमें आग लगा दी। आग तापता हुआ वह राक्षस का इंतजार करता रहा। रात के करीब दुसरे पहर में राक्षस आया। जली हुई आग देखकर वह हँसा, 'हा..! हा....! हा....! आज तो मेरे मेहमान ने तापने को आग भी जलाई है। वाह रे मेरे मेहमान! वाह आज मैं बहुत खुश हुआ।

यह कहकर राक्षस साधू को खाने के लिए लपका। साधू ने आव देखा न ताव और एक जलता हुआ मोटा लठ्ठ उठाकर उसके मुंह पर दे पटका। इससे राक्षस के लम्बे-लम्बे बालों में आग लग गई। उसका मुंह बुरी तरह से झुलस गया। घबराहट में वह इधर-उधर दौड़ने-भागने लगा। भागते-भागते वह पहाड़ पर से नीचे बहती हुई बाणगंगा में धडाम से गिर पड़ा। बड़े जोर की आवाज हुई और आवाज़ सुनकर नगर के सभी लोग जाग गए। वे दौड़कर नदी पर पहुंचे। उन्होंने देखा की आधी पूंछ वाला राक्षस नदी में से निकला और डरकर अपनी गुफा में घुस गया। लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। लिंडापीर के डर से उन्हें चैन मिला।

उस दिन के बाद आधी पूंछ वाला राक्षस न तो आया और न ही किसी को दिखाई दिया। आज भी कांगड़ा में लिंडापीर की गुफा है। और लोगों का मानना है कि लिंडापीर राक्षस आज भी उसी गुफा में निवास करता है।

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