अर्जुन का अहंकार

अर्जुन का अहंकार

भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता के बारे में भला कौन नहीं जानता। परन्तु अर्जुन श्रीकृष्ण को केवल मित्र ही नहीं मानता था, अर्जुन की दृष्टि में श्रीकृष्ण उनके लिए ईश्वर थे और वह नित्य श्रीकृष्ण की भक्ति किया करता था। श्रीकृष्ण भी अर्जुन से अत्यंत प्रसन्न थे। कदाचित सभी पांडवों में श्रीकृष्ण अर्जुन से ही सबसे ज्यादा स्नेह करते थे।

इसी क्रम में एक बार की बात है अर्जुन को अहंकार हो गया कि पूरी सृष्टि में केवल वही एक है जो भगवान श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा भक्त है। अर्जुन मन-ही-मन श्रीकृष्ण के अन्य भक्तों से चिढ़ करने लगा। अब श्रीकृष्ण तो ईश्वर थे उन्होंने अर्जुन की मनोदशा को भांप लिया। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि अर्जुन अहंकार की इस दशा में रहें क्योंकि अर्जुन को भविष्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण धर्मयुद्ध में अहम् भूमिका निभानी थी और वो इस बात से भली-भांति अवगत थे कि अहंकार मनुष्य के पतन का मूल कारण होता है।

कुछ दिन बीत गए और एक दिन श्रीकृष्ण समय देखकर अर्जुन को अपने साथ वन की ओर घुमाने ले गए। जब वे दोनों रथ में बैठकर वन की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो मार्ग में अर्जुन की दृष्टि एक ब्राह्मण पर पड़ी। ब्राह्मण अपनी कुटिया के समीप ही बनी हुई पशुशाला, जिसमें यही कोई एक-दो गाय रही होंगी, के बाहर बैठा हुआ था। देखने से ही पता चल जाता था कि ब्राह्मण बहुत ही गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहा था। अर्जुन ने ब्राह्मण को बड़े ध्यान से देखा और सारथी से रथ रोकने को कहा।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर मुख किया और पूछा – क्या हुआ पार्थ! तुमने रथ रोकने का निर्देश क्यों दिया?

अर्जुन बोला – हे मधुसुधन! उस कुटिया के समीप उस ब्राह्मण को देखिए। क्या आपको इस ब्राह्मण का व्यवहार कुछ विचित्र नहीं लग रहा?

श्रीकृष्ण बोले – क्यों... क्या उसके व्यवहार में कोई विशेष बात है?

अर्जुन बोला – देखिये न प्रभु! वह ब्राह्मण घास खा रहा है और उसकी कमर से एक तलवार भी लटक रही है। घोर आश्चर्य है। मुझे अत्यंत जिज्ञासा हो रही है... मैं इनसे पूछ कर आता हूँ।

अर्जुन रथ से उतरा और ब्राह्मण की ओर अपने पग बढ़ाये। अर्जुन ने ब्राह्मण को बिना प्रणाम किये उससे पूछा, “हे ब्राह्मण! मुझे आपका आचरण सामान्य प्रतीत नहीं होता। आप पशुओं के समान घास-फूस का सेवन कर रहें हैं और फिर आपकी कमर पर एक तलवार...! ब्राह्मण तो अहिंसा में विश्वास रखते हैं, फिर ये तलवार...! किस लिए..? कदाचित ये मान भी लिया जाये कि आप जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर ये हिंसा का उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?”

ब्राह्मण ने अर्जुन की ओर देखा। ब्राह्मण इस बात से अनभिज्ञ था कि जो उससे यह प्रश्न कर रहा है वह अर्जुन है। ब्राह्मण ने अत्यंत ही शांत भाव से उत्तर दिया, “हे कुमार! यद्यपि मैं आपको नहीं जानता और मेरा आपके प्रश्नों का उत्तर देना मैं अनिवार्य नहीं समझता किन्तु इस राज्य में केवल आप ही हैं जिन्होंने मुझसे यह प्रश्न पूछा है इसलिए मैं आपको उत्तर अवश्य दूंगा। अन्यथा सभी राज्यवासी जो यहाँ से गुज़रते हैं वे मेरे घास खाने को मेरा पागलपन भी समझते है और मुझे पागल कहते भी हैं। किन्तु मेरे हाथों में इस तलवार को देखकर मेरे समीप भी नहीं आते।“

“कुमार! मेरे घास खाने का कारण तो आप जान ही चुके हैं। और जहाँ तक बात है इस तलवार की तो यह तलवार मैंने इसलिए रखा है क्योंकि मैं कुछ लोगों को दण्डित करना चाहता हूँ।“

अर्जुन ने जिज्ञासावश पूछा, “आखिर कौन है आपके शत्रु जिन्हें आप दण्डित करना चाहते हैं?

ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “मैं चार व्यक्तियों को ख़ोज रहा हूँ, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूँ।

अर्जुन ने फिर पूछा, “वे चार व्यक्ति कौन हैं? क्या आप उन्हें जानते हैं?

ब्राह्मण बोला, “कुमार..! जिन चार व्यक्तियों को मैं दण्डित करना चाहता हूँ उनमें सर्वप्रथम है नारद जी।

अर्जुन ने आश्चर्य से कहा, “देवर्षि नारद जी..! भला वो क्यों?”

ब्राह्मण बोला, “क्योंकि नारद जी मेरे प्रभु को कभी आराम नहीं करने देते, सदा नारायण-नारायण का जाप करते रहते है जिससे मेरे प्रभु को सदैव जागृत रहना पड़ता है और उन्हें विश्राम का समय ही नहीं मिलता। नारद जी के बाद जिन्हें मैं दण्डित करना चाहता हूँ वो है द्रौपदी।“ इससे पहले कि अर्जुन फिर कुछ कहते ब्राह्मण बोलते रहे, “क्योंकि द्रौपदी ने मेरे प्रभु को सहायता हेतु ठीक उसी समय पुकारा जब वे भोजन करने बैठे थे। बेचारे मेरे प्रभु को तत्काल खाना छोड़ कर पाण्डवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने हेतु जाना पड़ा। और तो और उसकी धृष्टता तो देखिए उसने मेरे भगवन को जूठा भोजन भी खिलाया।“

अर्जुन चुपचाप सुनते रहे। जब ब्राह्मण कुछ क्षणों के लिए मौन हुए तो अर्जुन ने पूछा, “...और शेष दो व्यक्ति जिन्हें आप दण्डित करना चाहते हैं..?”

ब्राह्मण बोले, “तीसरा व्यक्ति है प्रह्लाद, उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाहे में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाया, अग्नि में झुलसाया और अंत में खम्बे से प्रकट होने के लिए भी विवश किया। और अंत में जिस व्यक्ति को मैं दण्डित करना चाहता हूँ वो है अर्जुन। उस अर्जुन कि दुष्टता तो देखो सुनने में आया है कि उसने मेरे प्रभु को अपना सारथी बनाया है। उस निर्लज्ज को मेरे प्रभु की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं है। पता नहीं मेरे प्रभु को कितना कष्ट होता होगा।“ इतना कहते-कहते ब्राह्मण की आंखे आंसुओं से भर गईं।

यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसे स्वयं से घृणा होने लगी। आत्मग्लानी से भरे हुए अर्जुन ने उसके बाद ब्राह्मण से कोई प्रश्न नहीं किया। वह चुप-चाप उलटे पांव उस कुटिया से दूर खड़े अपने रथ की ओर बढ़ा। उसने श्रीकृष्ण के समक्ष हाथ जोड़े और उनसे क्षमा मांगते हुए कहा, “हे श्रीकृष्ण! मुझे क्षमा करें। आज मुझे आभास हुआ कि इस जगत में आपके न जाने कितने तरह के भक्त हैं, और उन सब में मैं तो कुछ भी नहीं हूँ।“

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