विद्या की रेखा

विद्या की रेखा

बहुत पुराने समय की बात है जब आज की भांति विद्यालय नहीं होते थे। शिष्य गुरुकुलों में रहते थे और वहीं गुरु से शिक्षा ग्रहण करते थे। ऐसे ही एक गुरुकुल में कुशा के आसन पर बैठे गुरुजी शिष्यों को प्रतिदिन पढ़ाया करते थे। सभी शिष्य उनके विचारों को बड़े ध्यान से सुनकर शिक्षा ग्रहण करते थे परन्तु उनमें से एक बालक गुरु जी की बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देता था। वह कभी अपने आस-पास उड़ती हुई रंगबिरंगी तितलियों की सुंदरता को देखता रहता, कभी आम के वृक्ष की शाखा पर बैठी कोयल की कूक सुनता। पढ़ते समय सदा ही वह इधर-उधर देखता रहता और पढ़ाई में उसका ज़रा भी मन नहीं लगता था।
गुरु जी जो भी कार्य बताते या कोई पाठ उसे याद करने को देते, वह कभी भी उसे पूरा नहीं करता था। एक दिन गुरु जी ने बालक पर थोड़ा क्रोध दर्शाते हुए उसे बुलाया, उसका हाथ पकड़ा, फिर यह कहते हुए छोड़ दिया कि 'मुझे लगता है तुम्हारे हाथ में विद्या की रेखा ही नहीं है। अगर ऐसा ही रहा तो तुम विद्या ग्रहण नहीं कर सकते।'

बालक को गुरु के इस व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। गुरु के इन वचनों को सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ। वह मन ही मन सोचने लगा कि आख़िर उसके हाथ में विद्या की रेखा क्यों नहीं है? वह क्यों विद्या ग्रहण नहीं कर सकता? वह परेशान था। उसके चेहरे के रंग बदल रहे थे। अन्य छात्र भी उसे हैरानी और दया की नज़र से देख रहे थे। परन्तु वह मन ही मन सोच रहा था कि वह भी अपने हाथों में विद्या की रेखा बनाएगा।

अगले दिन बालक अपने हाथ पर चाकू से एक रेखा बनाकर लाया। वह पूर्ण विश्वास के साथ मुस्कुराते हुए गुरु के पास गया और कहने लगा, 'गुरु जी..! देखिए मेरे हाथ में भी विद्या की रेखा बन गई।' ऐसा देखकर गुरु हैरान हो गए और भीतर ही भीतर द्रवित भी हुए। उन्हीने प्रेम से बालक के सर पर हाथ फेरा और एक हाथ से उसकी हथेली को सहलाते हुए कहा, 'बेटा! तुमने यह क्या कर दिया? मेरे कहने का यह आशय कदापि नहीं था, यह रेखा तो ज़ख्म भरने के साथ मिट जाएगी, लेकिन अगर तुम परिश्रम, लगन और समर्पण से अध्ययन करोगे तो तुम्हारे हाथ में ऐसी विद्या की रेखा बनेगी जी कभी नहीं मिटेगी।'

गुरु की बातों का बालक के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसके बाद बालक का व्यवहार दिन प्रतिदिन बदलने लगा। वह रोज़ प्रातः शीघ्र उठता, गुरुकुल के कार्यों में हाथ बंटाता व गुरु द्वारा सिखाए गए पाठ को लगन से याद करता।  उसका व्यवहार अन्य शिष्यों के साथ मैत्री एवं सहयोग पूर्ण हो गया। सभी बालक उसके बदले हुए व्यवहार को देखकर आश्चर्य चकित थे। गुरु भी उसके बदले व्यवहार से अत्यंत प्रसन्न थे। धीरे-धीरे वह बालक गुरुकुल का सर्वश्रेष्ठ बालक बन गया। एक दिन जब शिक्षा पूर्ण करके शिष्यों को एकत्रित करके गुरूजी ने उस बालक को अपने पास बुलाया। उन्होंने बालक की हथेली पकड़ी और यह देखकर वे अत्यधिक अभिभूत थे कि आज उसके हाथों में उसकी लगन और परिश्रम से विद्या की ऐसी रेखा उभर आई थी जो कभी मिट नहीं सकती थी। गुरु ने बच्चों को उसका उदाहरण देते हुए कहा, 'बच्चों अगर तुम भी इस बालक की भांति संकल्प, दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन से कार्य करोगे तो कभी भी जीवन में असफ़लता का मुंह नहीं देखोगे।'

बाद में यही बालक साहित्य जगत में 'पाणिनि' के नाम से विख्यात हुआ।

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