बेताल पच्चीसी - प्रारब्ध Betaal Pachchisi - The Begining...!

विक्रम और बेताल

बाल-पेपर | विक्रम और बेताल - प्रारब्ध

बेताल पच्चीसी - प्रारब्ध

बहुत पुरानी बात है। धारा नगरी में गन्धर्वसेन नाम का एक राजा राज करता था। उसकी चार रानियाँ थीं और उन चार रानियों से उसे छ: पुत्र प्राप्त थे जो सब-के-सब बड़े ही चतुर और बलवान थे। एक दिन अकस्मात् राजा गन्धर्वसेन की मृत्यु हो गई और उनकी जगह उनका बड़ा बेटा शंख गद्दी पर बैठा। उसने कुछ दिन राज्य पर शासन तो किया, किन्तु उसे उसके छोटे भाई विक्रम ने मार डाला और स्वयं राजा बन गया। उसका राज्य दिनोंदिन बढ़ता गया और वह सारे जम्बूद्वीप (भारत) का राजा बन बैठा। एक दिन यूँही उसके मन में एक विचार आया कि उसे घूमकर सैर करनी चाहिए और जिन देशों के नाम उसने सुने हैं, उन्हें देखना चाहिए। इसलिए उसने राजगद्दी अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपी, और स्वयं योगी बनकर, राज्य से निकल पड़ा।

उस नगर में एक ब्राह्मण तपस्या करता था। एक दिन देवता ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया और कहा कि इसे जो भी इस फल को खायेगा, वह चिरकाल के लिए अमर हो जायेगा। ब्रह्मण ने वह फल लाकर अपनी पत्नी को दिया और देवता की बात भी बता दी। ब्राह्मणी, जो कदाचित बुद्धिमान थी या मुर्ख, बोली, “स्वामी! भला हम अमर होकर क्या करेंगे? यदि अमर हो गए तो जीवनपर्यंत हम भीख माँगते ही रहेंगें। और ऐसे जीवन से तो मरना ही अच्छा है। आप इस फल को ले जाकर राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ।”

ब्राह्मण ने वैसा ही किया। वह फल लेकर तत्कालीन राजा भर्तृहरि के पास गया और सारा हाल कह सुनाया। भर्तृहरि ने फल ले लिया और ब्राह्मण को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर सहसम्मान विदा कर दिया। भर्तृहरि अपनी एक रानी को बहुत चाहता था। उसने महल में जाकर वह फल उसी को दे दिया। रानी की मित्रता नगर-कोतवाल से थी। सो उसने वह फल कोतवाल को दे दिया। नगर-कोतवाल जो प्रत्येक संध्या नगर की एक वेश्या के पास जाया करता था। वह उस फल को उस वेश्या को दे आया। वेश्या ने गहन सोच-विचार किया और सोचा कि इस फल को खाने का अधिकार तो केवल राजा को ही है। वह उस फल को पुनः राजा भर्तृहरि के पास ले गई और उसे दे दिया। भर्तृहरि ने उसे बहुत-सा धन दिया; लेकिन जब उसने फल को अच्छी तरह से देखा तो पहचान लिया। उसे रानी के इस कृत्य से बहुत ही दुःख हुआ, पर उसने किसी से कुछ कहा नहीं।

वह महल में गया और रानी से पूछा कि तुमने उस फल का क्या किया। रानी ने कहा, “मैंने उसे खा लिया।” राजा ने वह फल निकालकर रानी को दिखा दिया। रानी घबरा गयी और उसने सारी बात सच-सच कह दी। भर्तृहरि ने पता लगाया तो उसे पूरी बात ठीक-ठीक मालूम हो गयी। वह बहुत दु:खी हुआ। उसने सोचा, यह दुनिया माया-जाल है। इसमें अपना कोई नहीं। वह फल लेकर बाहर आया और उसे धुलवाकर स्वयं खा लिया। फिर राजपाट छोड़कर, योगी का भेस बना, जंगल में तपस्या करने चला गया।

भर्तृहरि के जंगल में चले जाने से विक्रम की गद्दी सूनी हो गयी। जब राजा इन्द्र को यह समाचार मिला तो उन्होंने एक देव को धारा नगरी की रखवाली के लिए भेज दिया। वह रात-दिन वहीं रहने लगा।

भर्तृहरि के राजपाट छोड़कर वन में चले जाने की बात विक्रम को मालूम हुई तो वह लौटकर अपने देश वापस आ गया। आधी रात का समय था। जब वह नगर में घुसने लगा तो नगर रक्षक देव ने उसे रोका। राजा ने कहा, “मैं विक्रम हूँ। यह मेरा राज्य है। तुम मुझे रोकने वाले कौन होते हो?”

देव बोला, “मुझे राजा इन्द्र ने इस नगर की चौकसी के लिए भेजा है। यदि तुम वास्तव में राजा विक्रम हो तो आओ, पहले मुझसे द्वन्द करो। यदि तुम मुझे पराजित कर पाए तो मैं मान जाऊंगा कि तुम ही राजा विक्रम हो अन्यथा तुम्हें मृत्यु का ग्रास होने से कोई नहीं बचा सकेगा।”

दोनों में लड़ाई हुई। राजा ने थोड़े-ही समय में देव को पछाड़ दिया। तब देव बोला, “हे राजन्! तुमने मुझे हरा दिया। मैं संतुष्ट हो गया कि आप ही राजा विक्रम हैं।”

उसके उपरांत देव बोला, “हे राजन्!, मैं आपसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात करने जा रहा हूँ अतः इसे विशेष ध्यान देकर सुनियेगा। इस राज्य में एक ही नक्षत्र में तीन व्यक्ति पैदा हुए थे। उनमें से एक तुम थे जिसने राजा के घर में जन्म लिया, एक दूसरे बालक ने एक तेली के घर में और अंतिम तीसरे ने एक कुम्हार के घर में। तुम इस राज्य में राजा बने हो, तेली पाताल में राज करता था लेकिन कुम्हार ने योग साधकर तेली को मारकर शमशान में पिशाच बनाकर एक सिरस के पेड़ पर लटका दिया है। अब कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। अतः उससे सावधान रहना।”

इतना कहकर देव चला गया और विक्रम महल में आ गया। राजा विक्रम को वापस आया देख सबको बड़ी खुशी हुई। पुरे नगर में आनन्द मनाया गया। विक्रम एक बार फिर से राज करने लगा।

एक दिन की बात है कि शान्तिशील नाम का एक योगी राजा के पास दरबार में आया और उसे एक फल देकर चला गया। राजा को आशंका हुई कि देव ने जिस आदमी को बताया था, कहीं यह वही तो नहीं है। यह सोच उसने फल नहीं खाया, भण्डारी को दे दिया। योगी आता और राजा को एक फल दे जाता।

संयोग से एक दिन राजा अपना अस्तबल देखने गया था। तभी योगी वहाँ पहुँचा और एक और फल राजा के हाथ में दे दिया। राजा ने उसे उछाला तो वह हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़ा। उसी समय एक बन्दर ने झपटकर उसे उठा लिया और तोड़ डाला। उसमें से एक लाल रत्न निकला, जिसकी चमक से सबकी आँखें चौंधिया गयीं। राजा को बड़ा अचरज हुआ। उसने योगी से पूछा, “आप यह लाल रत्न मुझे रोज़ क्यों दे जाते हैं?”

योगी ने जवाब दिया, “महाराज! राजा, गुरु, ज्योतिषी, वैद्य और बेटी इनके घर कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।”

राजा ने भण्डारी को बुलाकर पीछे के सब फल मँगवाये। तुड़वाने पर सबमें से एक-एक लाल रत्न निकला। इतने लाल रत्न देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ। उसने जौहरी को बुलवाकर उनका मूल्य पूछा। जौहरी बोला, “महाराज, ये लाल रत्न इतने कीमती हैं कि इनका मोल करोड़ों रुपयों में भी नहीं आँका जा सकता। एक-एक रत्न एक-एक राज्य के बराबर है।”

यह सुनकर विक्रम को अपनी किये पर बहुत पछतावा हुआ। उसने सोचा अवश्य ही यह योगी मेरा हितैषी है अन्यथा इतने अमूल्य लाल रत्न भला कोई किसी को ऐसे ही कैसे दे सकता है। विक्रम तुरंत ही योगी को अस्तबल के प्रांगण से राज दरबार में ले गया और राजगद्दी पर बिठाकर उससे अपने व्यवहार के लिए क्षमा याचना करने लगा। विक्रम बोला, “योगीराज, मैं आपको किसी और के कहे के अनुसार कोई और ही समझ बैठा था, मुझे आपके साथ इस प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिए था। अतः आप मुझे क्षमा कर दें।”

शान्तिशील ने कहा, “महाराज, आपको क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी योगी को कैसा मान कैसा अपमान। हम तो संसार सभी मोह-माया से परे हैं। हमें न तो आपके सम्मान का लोभ न आपके अपमान का कलेश।”

विक्रम शान्तिशील के विचारों से अत्यंत प्रभावित हुआ। अतः वह बोला, “हे योगिराज, आप मुझे बताएं कि मैं आपकी सेवा किस प्रकार कर सकता हूँ।”

शान्तिशील बोला, “राजन! बात यह है कि मैं पास ही गोदावरी नदी के तट पर स्थित मशान में एक मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ। उसके सिद्ध हो जाने पर मेरा वह मनोरथ पूरा हो जायेगा जिससे मैं इस जगत के कल्याण के अपने संकल्प को पूरा कर सकूँगा। अतः इस प्रयोजन हेतु यदि तुम एक रात मेरे पास रहोगे तो वह मंत्र सिद्ध हो जायेगा। यदि आप एक रात के लिए अपनी तलवार सहित अकेले मेरे पास आ जाते हैं तो मेरा वह मनोरथ सिद्ध हो जायेगा।”

विक्रम ने सोचा कि जगत कल्याण का विषय है इसलिए मुझे योगिराज की सहायता कर लेनी चाहिए। विक्रम ने कहा “अच्छी बात है योगिराज। मैं आपके इस महान कार्य में आपका सहयोग करने के लिए तैयार हूँ, आप मुझे दिन और समय बता दें मैं उसके अनुसार आपकी सेवा में प्रस्तुत हो जाऊंगा।”

इसके उपरान्त शान्तिशील दिन और समय बताकर अपने मठ में चला गया। कुछ दिन बाद वह समय आ गया और पूर्वनिर्धारित समय के अनुसार राजा विक्रम अकेला ही उस स्थान पर पहुँचा। योगी ने उसे अपने पास बिठा लिया। थोड़ी देर बैठने के बाद राजा ने पूछा, “महाराज, मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

योगी ने कहा, “राजन, आप यहाँ से दक्षिण दिशा में दो कोस की दूरी तक जाईये और वहाँ पर मशान में एक सिरस के पेड़ पर एक मुर्दा लटका हुआ है। उसे मेरे पास ले आओ, तब तक मैं यहाँ पूजा करता हूँ।”

आज्ञा पाकर राजा वहाँ से चल दिया। वह रात बहुत ही डरावनी और भयंकर थी। चारों ओर घुप अँधेरा फैला हुआ था। आसमान पर काले बादल थोड़े-थोड़े समय के बाद धरती पर दहाड़ते हुए बिजली चमका रहे थे और पानी की हल्की-हल्की फुहार भी बरस रही थी। जंगल के हर कोने से उल्लुओं और चमगादड़ों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़े आ रही थी। हर ओर से भूत-प्रेत की आवाज़े जंगल में घूम रहीं थी। साँप आ-आकर पैरों में लिपट रहे थे। लेकिन राजा विक्रम हिम्मत से आगे बढ़ता गया। जब वह निर्धारित मशान के पास पहुँचा तो क्या देखता है कि शेर दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, भूत-प्रेत आदमियों को मार रहे हैं। राजा बेधड़क चलता गया और उस सिरस के पेड़ के पास पहुँच गया। वह पेड़ जड़ से चोटी तक आग से दहक रहा था। राजा ने सोचा, हो-न-हो, यह वही योगी है, जिसकी बात देव ने बतायी थी। पेड़ पर रस्सी से बँधा मुर्दा लटक रहा था। राजा पेड़ पर चढ़ गया और तलवार से रस्सी काट दी। मुर्दा नीचे गिर पड़ा और दहाड़ मार-मार कर रोने लगा।

विक्रम ने नीचे आकर पूछा, “तू कौन है?”

राजा का इतना कहना था कि वह मुर्दा खिल-खिलाकर हँस पड़ा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। तभी वह मुर्दा फिर से पेड़ पर जा लटका। राजा फिर चढ़कर ऊपर गया और रस्सी काटकर, मुर्दे को वहीं पेड़ पर अपनी बगल में दबाकर, नीचे आया। फिर बोला, “बता, तू कौन है?”

मुर्दा फिर से चुप ही रहा।

तब राजा ने उसे एक चादर में बाँधा और उसे योगी के पास ले जाने लगा। मगर वह मुर्दा बहुत ही भारी था। विक्रम को उसे उठाने में बहुत अधिक शक्ति का प्रयोग करना पड़ रहा था। इतने में मुर्दा बोला, “ठहरो, मैं बेताल हूँ। पहले अपना परिचय दो। तुम कौन हो और मुझे कहाँ ले जा रहे हो?”

विक्रम ने उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा, “मेरा नाम विक्रम है। मैं धारा नगरी का राजा हूँ। मैं तुम्हें योगी शान्तिशील की आज्ञा से उनके पास ले जा रहा हूँ।”

बेताल बोला, “तुम्हें अवश्य ही मेरा शरीर आश्चर्यजनक रूप से भारी लग रहा होगा क्योंकि कोई भी जीवित मनुष्य मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे यहाँ से नहीं ले जा सकता। मैंने तुम्हारे बारे में बहुत सुना है। तुम एक अच्छे राजा हो। अतः मैं तुम्हारे साथ जाने को तैयार हूँ किन्तु मेरी एक शर्त है।” विक्रम ने शर्त पूछी। तब बेताल बोला, “शर्त यह है कि अगर तुमने रास्ते में एक भी शब्द कहा तो मैं लौटकर पेड़ पर जा लटकूँगा।”

विक्रम ने उसकी बात मान ली। बेताल विक्रम के साथ जाने को तैयार हो गया।” विक्रम ने महसूस किया कि अब वह मुर्दा बिलकुल ही हल्का हो गया है।

थोड़ी दूर चलने पर बेताल बोला, “देखो राजन! दुनिया में पण्डित, चतुर और ज्ञानी यह तीन ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके दिन अच्छी-अच्छी बातों में बीतते हैं, जबकि इसके विपरीत मूर्खों के दिन आपसी कलह और अधिकतर समय निद्रा में। इसलिए अच्छा होगा कि हमारी यात्रा भली बातों की चर्चा में बीत जाये।” विक्रम चुप रहा। बेताल बोलता रहा, “इसलिए मैं ऐसा करता हूँ कि मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। तुम ध्यान से सुनना।”

...यहाँ से आरम्भ होता है बेताल-पच्चीसी (विक्रम-बेताल कथा संग्रह) की कहानियों का सफ़र।

विशेष सुचना: कहानी के कुछ अंश बाल-पेपर© के लेखक मंडल द्वारा सम्पादित किये गए हैं ताकि कहानी का प्रवाह तार्किक  (logical) लगे। यह संपादन पूर्णरूपेण काल्पनिक है तथा मूल कथा के स्वरूप को बरकरार रखते हुए थोड़ी सी भिन्न है
हमें यकीन है कि आपको यहाँ तक की कहानी बेहद पसंद आई होगी। फिर भी अगर आपको हमारे ब्लॉग से कोई शिकायत है या आप हमें कोई सुझाव देना चाहें तो हमारा ईमेल पता है baalpaper@outlook.in
हमें आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।